क्या कहूँ उन्हें मैं ..... क्या नाम दू ?
ऊर्जा ..... शक्ति..... ख़ुशी ..... आनंदी.... अपराजिता ... विजया ... मोदिनी ... अन्नपूर्णा ..... स्फूर्ति
क्या ? जो भी नाम दू उनके वयक्तित्व के सामने कुछ छोटा ,कुछ कम ही नज़र आता हैं।
बहुत जानती नहीं थी उनके बारे में मैं ,बस इतना ही जानती थी की वो खेलती हैं ,विभिन्न खेलो में उनकी अच्छी पकड़ हैं।
उस दिन रोज की तरह मैं वहां से गुजर रही थी ,स्विमिंग पूल के पास से, कि लगा कोई मुझे पुकार रहा हैं। देखा तो वह खड़ी थी सामने। कह रही थी " माना आप संगीत में हैं पर कभी मेरे यहाँ भी आइये ,देखिये तो हमारा स्विमिंग पूल कैसा हैं आइये न ! अभी चलिए साथ। "
मुझे उनके प्रेम भाव से परिपूर्ण आमंत्रण का बड़ा कौतुक लगा ,किन्तु उस समय संग न जा सकी।
कुछ दिन बीत गए ,एक दिन रास्ते से गुजरते देखा वो मेरे आगे ही चल रही हैं ,हाथ में बड़ा सा पोटला लिए , कौतुहल जागा,इसमें क्या होगा ? तक़रीबन कुछ मिनटों के बाद वो हमारे कक्ष में आई ,हाथ में वही पोटला धारण किये ,पोटला उन्होंने हमारे सामने रखा ,हम आश्चर्य विस्मित एक दूजे को देख रहे थे।
उस पोटले से क्या निकलने वाला हैं इस प्रश्न को आँखों में लिए ,बाल सुलभ जिज्ञासा से पूरित हम सब नन्हे बालक - बालिकाओं से उस पोटले ,तो कभी उन्हें देख रहे थे।
पोटले में लगी गठानें एक - एक कर खुल रही थी ,धीरे - धीरे उस बड़े से पोटले से , बड़े - बड़े बंद डिब्बे निकलने शुरू हुए।
हमने पूछा यह सब क्या हैं ? उन्होंने उतने ही सरल भाव से कहा " मैं रास्ते से आ रही थी ,तो दूकान में पुंगोली ,चिवड़ा ,पाव दिखाए दिए ,आप सबके लिए भाजी सुबह ही बनायीं थी ,एक फल वाला भी था तो यह सब आपके लिए ले आई सोचा सब साथ खाएंगे। हम हर्ष मिश्रित भाव से उन्हें देखने लगे ,हमारे लिए बिना कुछ कारण न जाने वो क्या - क्या ले आई थी ,ऐसा प्यार ,ऐसा दुलार तो बचपन में हमारी माँ ही दिया करती थी।
उस दिन हम सब बच्चे बन गए ,उँगलियों में अटका अटका कर बेसन से बनी पुंगोलिया खाते हुए हम सब अपना बचपन याद कर रहे थे।
शायद उनसे पहले हम में से किसी ने न सोचा था " बरसो बीत गए पुंगोली नहीं खायी या शायद इस तरह सर्व -सार्वजानिक तौर पर पुंगोली खाना हमारे ' स्टेटस सिंबल ' के विरुद्ध रहा हो !!! अलबत्ता ...
हम उन्हें देख रहे थे ऊँचे आकाश में वो उड़ रही थी ,उन्हें शायद डर लगता ही नहीं था ,हम युवतियां जिस खेल को खेलने और हवा में कलाबाजियां दिखाने से डर रही थी ,उन्हें उस खेल से ,निचे गिर पड़ने से बिलकुल डर नही था। वो आसमान से हमें हाथ हिला कर प्रेरित कर रही थी और हम ये सोच सोच कर हैरान थे ये खुद को संभाल कैसे रही हैं ? यह उनकी ही प्रेरणा थी की उस दिन हम सब ने ऊँचे आकाश में उड़ान भरी ,धरती को बहुत - बहुत उपर से देखा , किसी विमान में बैठ कर नहीं ,बस एक तार पर लटकते हुए।
वहां कोई गा रहा था ,कोई सिनेमा में देखी डांस स्टेप्स को फॉलो कर रहा था हंसी -मजाक सब चल रहा था ,पर कही कुछ कमी थी। अचानक से वो आई और एक ट्रेडिशनल मराठी गाने पर नृत्य करने लगी ,उनके नृत्य में वो जीवंतता थी की हर मन झूमने लगा ,हर कोई नाचने लगा। जो कमी थी वो पूरी हो गयी।
मैंने सोचा पुनः एक बार सोचा ,कैसे कर लेती हैं यह सब कुछ ?
इतना आनंद ,इतनी जिजीविषा ,इतनी स्फूर्ति ,इतनी प्रेरणा !!!!!
वह हम आप जैसी साधारण स्त्री हैं ,एक साधारण परिवार से ,साधारण वेश धारण किये ,साधी -सरल जिंदगी जीने वाली। पर उनमे कुछ खास हैं ,वह खास जो उन्हें अत्यंत असाधारण बना देता हैं। एक अलग ही ज्योति हैं वो ,एक अलग ही विश्वास। वो जीती नहीं वो जीना सिखाती हैं ,वो हँसती नहीं , वो हँसना सिखाती हैं ,वो खिलखिलाती नहीं वो हमें खिलखिलाना सिखाती हैं। वो शायद वह दैवीय शक्ति हैं जो धरा पर आई ही हम सबको जिवंत करने के लिए हैं।
बहुत कुछ सीखा हैं मैंने उनसे उत्साह ,उमंग ,उल्हास। मैं ऋणी हूँ उनकी की मुझे उन्हें जानने का अवसर मिला ,समझने का अवसर मिला। उन्हें धन्यवाद कहना संभव नहीं ,क्योकि धन्यवाद कोई शब्द ही नहीं जो उनके किये को पूरा उतार सके। बस इतना ही कह सकती हूँ स्नेहा जी आप का विचार जब कभी आता हैं जो ह्रदय स्नेह से ,प्रेम से ,आनंद से भर जाता हैं। आज आपका जन्मदिन हैं ,ईश्वर करे आपको हज़ारो वर्षो की उम्र मिले और मुझे आपका साथ। ....
सस्नेह
बहुत ही सुदंर रचना की प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही सुदंर रचना की प्रस्तुति।
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